पौराणिक >> मैं भीष्म बोल रहा हूँ मैं भीष्म बोल रहा हूँभगवतीशरण मिश्र
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महाभारत के अमर नायक भीष्म के जीवन पर आधारित आत्मकथात्मक उपन्यास।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
महाभारत में सबसे विशिष्ट चरित्र भीष्म पितामह का है। अपने पिता की इच्छा
पूरी करने के लिए उन्होंने आजन्म ब्रह्मचारी रहने की भीष्म प्रतिज्ञा की
और साथ ही राजसिंहासन पर अपने अधिकार की भी तिलाजंलि दी। दुर्योंधन के
विचारों, नीतियों और दुष्कर्मों के घोर विरुद्ध रहते हुए भी कौरवों के
पक्ष की सेवा करने की विवशता को स्वीकार किया, राजदरबार में द्रौपदी के
चीरहरण के समय क्रोध और लज्जा से दांत पीसकर रह गए। परन्तु खुलकर विरोध
करने में विवश रहे महाभारत युद्ध में भी कौरव सेना का सेनापतित्व करना
पड़ा। जबकि मन में पाण्डवों के पक्षधर थे। उनका हृदय पाण्डवों के साथ था,
शरीर कौरवों की सेवा में। अनेक अन्तर्विरोधों से भरे भीष्म पितामह के
चरित्र को बहुत पैनी दृष्टि से परखते हुए रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है
इसके लेखक भगवतीशरण मिश्र ने।
भगवती शरण मिश्र
महाभारत के अमर नायक भीष्म के जीवन पर आधारित आत्मकथात्मक उपन्यास जिसे
पौराणिक चरित्रों के कुशल कथाशिल्पी भगवतीशरण मिश्र ने लिखा है। अत्यंत
पठनीय और विचारोत्तेजक कथाकृति।
आत्मकथ्य
सामाजिक उपन्यासों के लेखन के पश्चात् मैंने पौराणिक एवं ऐतिहासिक
उपन्यासों के लेखन के क्षेत्र में प्रवेश किया। अब तक ऐसे कई
उपन्यास प्रकाशित होकर प्रतिष्ठित हो चुके हैं। पाठकों में इनकी
अप्रत्याशित लोकप्रियता ने मुझे अधिक-से-अधिक ऐसी कवियों को प्रस्तुत
करने-हेतु विवश किया और मैं एक चरित्र के पश्चात दूसरे उदात्त चरित्र पर
लेखनी चलाता रहा।
मुझे लगता है कि महाभारत के महानायक भीष्म पितामह पर लिखने में विलम्ब हुआ। इस सांस्कृतिक पुरुष पर मुझे पूर्व ही पर्याप्त लेखनी चलानी थी। ऐसा क्यों नहीं हुआ इसका उत्तर भी भीष्म के चरित्र में ही उपलब्ध है। नियति ने भीष्म के साथ ऐसे –ऐसे अदभुद खेल-खेले जिनकी परिकल्पना भी कठिन है। उनकी नियति का कारण मेरे पौराणिक उपन्यासों के चरित्र-नायकों की पंक्ति में वह पर्याप्त पीछे रह गए।
यों भी भीष्म पितामह पर लेखन के लिए पर्याप्त अध्ययन, अन्वेषण और चिन्तन की आवश्यकता थी। एक लक्ष श्लोकोंवाले महाभारत जो विश्व का महानतम काव्य है जो आद्यन्त मथने के बिना इस युग-नायक पर लेखनी चलाना उसके साथ और अपने साथ भी अन्याय करना होता क्योंकि इस युद्ध-काव्य में भीष्म भले ही प्रत्येक पृष्ठ पर उपलब्ध नहीं हों किन्तु वह इसमें यत्र-तन्त्र सर्वत्र अवश्य उपस्थित हैं। ऐसी स्थिति में पितामाह का चरित्रांकन दुष्कर हो आता है क्योंकि उन्हें एक लक्ष श्लोकों के मध्य उसी तरह ढूँढ़ना है जैसे कच्चे–पके आम्र-फलों से बोझिल वृक्ष से कोई पके फलों को अन्वेषित करे। इस अन्वेषण, इस मन्थन में कुछ समय तो लगाना ही था। भीष्म पर पर्याप्त, सामग्री जुटाने और उसे आत्मसात करने में पर्याप्त समय लग गया, अतः ग्रन्थ-लेखन के आरम्भ और अन्त के मध्य का समय का एक बड़ा अन्तराल गुज़र गया कई उपन्यास आए पर पितामाह पीछे ही रहे। प्रसन्नता है कि आज इस पुस्तक की पूर्णाहुति हुई और अब यह प्रकाशन हेतु प्रस्तुत है। ‘देर आए दुरुस्त आए’ की लोकोक्ति यहाँ पूर्णाहुति चरितार्थ होती है। बिलम्ब का परिणाम यह हुआ कि पितामाह के चरित्र के साथ मैं अपनी ओर से पूर्ण न्याय कर सका।
यह शीघ्रता में नहीं, अपितु निश्चिंतता में रचित कृति है अतः, यहाँ जो कुछ उपलब्ध है वह यथार्थ के समीप होने के साथ-ही-साथ उत्प्रेरक भी है। पाठक स्वयं इस कथन की सम्पुष्टि अगले पृष्ठों में करेंगे।
अपने औपन्यासिक लेखन में मैंने उच्चतर मानवीय मूल्यों की स्थापना को अपना लक्ष्य रखा क्योंकि इन मूल्यों का त्वरित क्षरण आज सभी बुद्धि-जीवियों की चिन्ता का विषय है। मेरा साहित्य अतः, निरुद्देश्य नहीं होकर सदा सोद्देश्य होता है भले ही साहित्य को मात्र समाज का दर्पण माननेवाले लोग अवधारणा की आलोचना करें। भीष्म के चरित्र के चयन के पीछे मेरा यही सदुद्देश्य है।
भीष्म के सदृश्य चरित्र विरल हैं। भीष्म एक साथ एक घोर प्रतिज्ञा-व्रती सिंह-सृदृश्य पराक्रमी, सत्यानिष्ठ भ्रमचर्यव्रती एवं मनुष्य-मात्र में आदर एवं समदृष्टि रखने वाले महानायक हैं। उनका राष्ट्रप्रेम अद्भुत है और अधिकार-लिप्सा से सर्वथा रहित वह राष्ट्र की सीमाओं की सुरक्षा को समर्पित हैं।
आज मूल्य का जो विविध आयामी ह्नास दृष्टिगोचर हो रहा है। उसमें सत्ता-लोभ एवं राष्ट्रीय एकता अखण्ता के प्रति उदासीनता भी सम्मिलित है। आतंकवादी गतिविधियों ने और शासकों की प्रायः उदासीनता एवं स्वार्थ-परक प्रवृत्तियों ने सीमाओं की सुरक्षाओं को संकट में डाल दिया है। ऐसे परिदृष्य में इस पुस्तक के नायक से बहुत कुछ सीखा-समझा जा सकता है, महाभारत एक युद्ध था अपितु महायुद्ध। आज भी केवल भारत ही नहीं प्रायः विश्वभर में आतंकवाद ने एक अघोषित युद्ध छेड़ रखा है। इस समय राष्ट्राध्यक्षों को भीष्म की तरह प्रतिज्ञावान, पराक्रमी एवं राष्ट्र-प्रेमी होने की आवश्यकता है।
भीष्म पर पुस्तक शायद सही समय की प्रतीक्षा कर रही थी। और वह समय आज आ पहुँचा है जब भारत के साथ-साथ अमेरिका और ब्रिटेन की तरह महाशक्तियाँ भी आतंकवादियों के प्रहार से रक्त-रंजित हो रही हैं। भीष्म बातों में कम और कर्म में अधिक विश्वास करने वाले इतिहास-पुरुष थे। महाभारत का अध्ययन स्पष्ट करता है कि अठ्ठारह दिनों के इस युद्ध में आरंम्भ के दस दिनों में, इस वृद्ध सेना-नायक ने अस्त्रों के निरंतर प्रहार से किस तरह प्रतिपक्ष के युवा सेनानियों को भी सिर उठाने का अवसर नहीं प्रदान किया। अन्ततः स्वेच्छया जब उन्होंने स्वयं को शरविद्ध करा रणांगण से पृथक किया तभी शत्रु-पक्ष निश्चिन्तता की सांस ले सका। क्या आज की परिस्थित में विश्वव्यापी आतंकवाद के भुजंग के सिर को कुचलने के लिए हर राष्ट्रध्यक्ष को महाभारत का भीष्म बनने की आवश्यकता नहीं ?
भीष्म का चरित्र कुछ सीमा तक बिडम्बनाओं और विरोधाभासों से भी भरा है।
स्वयं को उत्पीड़न कर भी वह दूसरों विशेषकर आत्मीयजनों की पीड़ा दूर करने के लिए सारे नीति-नियमों का उलंघन कर जाते हैं। इसे क्या कहेंगे ? समय की आवश्यकता अथवा नियति की क्रीड़ा ?
भीष्म का चरित्र जटिल है। नियति के हाथों कठपुतली बने इस कर्मशील एवं सत्यव्रती तथा श्रेष्ठों के प्रति श्रद्धावनत एवं आश्रितों के प्रति ममता से आकण्ड-पूरित इस विश्व–नायक के चरित्र का मूलांकन एक विषम कार्य है जिसे निभाने का प्रयास मैंने किया है।
मुझे लगता है कि महाभारत के महानायक भीष्म पितामह पर लिखने में विलम्ब हुआ। इस सांस्कृतिक पुरुष पर मुझे पूर्व ही पर्याप्त लेखनी चलानी थी। ऐसा क्यों नहीं हुआ इसका उत्तर भी भीष्म के चरित्र में ही उपलब्ध है। नियति ने भीष्म के साथ ऐसे –ऐसे अदभुद खेल-खेले जिनकी परिकल्पना भी कठिन है। उनकी नियति का कारण मेरे पौराणिक उपन्यासों के चरित्र-नायकों की पंक्ति में वह पर्याप्त पीछे रह गए।
यों भी भीष्म पितामह पर लेखन के लिए पर्याप्त अध्ययन, अन्वेषण और चिन्तन की आवश्यकता थी। एक लक्ष श्लोकोंवाले महाभारत जो विश्व का महानतम काव्य है जो आद्यन्त मथने के बिना इस युग-नायक पर लेखनी चलाना उसके साथ और अपने साथ भी अन्याय करना होता क्योंकि इस युद्ध-काव्य में भीष्म भले ही प्रत्येक पृष्ठ पर उपलब्ध नहीं हों किन्तु वह इसमें यत्र-तन्त्र सर्वत्र अवश्य उपस्थित हैं। ऐसी स्थिति में पितामाह का चरित्रांकन दुष्कर हो आता है क्योंकि उन्हें एक लक्ष श्लोकों के मध्य उसी तरह ढूँढ़ना है जैसे कच्चे–पके आम्र-फलों से बोझिल वृक्ष से कोई पके फलों को अन्वेषित करे। इस अन्वेषण, इस मन्थन में कुछ समय तो लगाना ही था। भीष्म पर पर्याप्त, सामग्री जुटाने और उसे आत्मसात करने में पर्याप्त समय लग गया, अतः ग्रन्थ-लेखन के आरम्भ और अन्त के मध्य का समय का एक बड़ा अन्तराल गुज़र गया कई उपन्यास आए पर पितामाह पीछे ही रहे। प्रसन्नता है कि आज इस पुस्तक की पूर्णाहुति हुई और अब यह प्रकाशन हेतु प्रस्तुत है। ‘देर आए दुरुस्त आए’ की लोकोक्ति यहाँ पूर्णाहुति चरितार्थ होती है। बिलम्ब का परिणाम यह हुआ कि पितामाह के चरित्र के साथ मैं अपनी ओर से पूर्ण न्याय कर सका।
यह शीघ्रता में नहीं, अपितु निश्चिंतता में रचित कृति है अतः, यहाँ जो कुछ उपलब्ध है वह यथार्थ के समीप होने के साथ-ही-साथ उत्प्रेरक भी है। पाठक स्वयं इस कथन की सम्पुष्टि अगले पृष्ठों में करेंगे।
अपने औपन्यासिक लेखन में मैंने उच्चतर मानवीय मूल्यों की स्थापना को अपना लक्ष्य रखा क्योंकि इन मूल्यों का त्वरित क्षरण आज सभी बुद्धि-जीवियों की चिन्ता का विषय है। मेरा साहित्य अतः, निरुद्देश्य नहीं होकर सदा सोद्देश्य होता है भले ही साहित्य को मात्र समाज का दर्पण माननेवाले लोग अवधारणा की आलोचना करें। भीष्म के चरित्र के चयन के पीछे मेरा यही सदुद्देश्य है।
भीष्म के सदृश्य चरित्र विरल हैं। भीष्म एक साथ एक घोर प्रतिज्ञा-व्रती सिंह-सृदृश्य पराक्रमी, सत्यानिष्ठ भ्रमचर्यव्रती एवं मनुष्य-मात्र में आदर एवं समदृष्टि रखने वाले महानायक हैं। उनका राष्ट्रप्रेम अद्भुत है और अधिकार-लिप्सा से सर्वथा रहित वह राष्ट्र की सीमाओं की सुरक्षा को समर्पित हैं।
आज मूल्य का जो विविध आयामी ह्नास दृष्टिगोचर हो रहा है। उसमें सत्ता-लोभ एवं राष्ट्रीय एकता अखण्ता के प्रति उदासीनता भी सम्मिलित है। आतंकवादी गतिविधियों ने और शासकों की प्रायः उदासीनता एवं स्वार्थ-परक प्रवृत्तियों ने सीमाओं की सुरक्षाओं को संकट में डाल दिया है। ऐसे परिदृष्य में इस पुस्तक के नायक से बहुत कुछ सीखा-समझा जा सकता है, महाभारत एक युद्ध था अपितु महायुद्ध। आज भी केवल भारत ही नहीं प्रायः विश्वभर में आतंकवाद ने एक अघोषित युद्ध छेड़ रखा है। इस समय राष्ट्राध्यक्षों को भीष्म की तरह प्रतिज्ञावान, पराक्रमी एवं राष्ट्र-प्रेमी होने की आवश्यकता है।
भीष्म पर पुस्तक शायद सही समय की प्रतीक्षा कर रही थी। और वह समय आज आ पहुँचा है जब भारत के साथ-साथ अमेरिका और ब्रिटेन की तरह महाशक्तियाँ भी आतंकवादियों के प्रहार से रक्त-रंजित हो रही हैं। भीष्म बातों में कम और कर्म में अधिक विश्वास करने वाले इतिहास-पुरुष थे। महाभारत का अध्ययन स्पष्ट करता है कि अठ्ठारह दिनों के इस युद्ध में आरंम्भ के दस दिनों में, इस वृद्ध सेना-नायक ने अस्त्रों के निरंतर प्रहार से किस तरह प्रतिपक्ष के युवा सेनानियों को भी सिर उठाने का अवसर नहीं प्रदान किया। अन्ततः स्वेच्छया जब उन्होंने स्वयं को शरविद्ध करा रणांगण से पृथक किया तभी शत्रु-पक्ष निश्चिन्तता की सांस ले सका। क्या आज की परिस्थित में विश्वव्यापी आतंकवाद के भुजंग के सिर को कुचलने के लिए हर राष्ट्रध्यक्ष को महाभारत का भीष्म बनने की आवश्यकता नहीं ?
भीष्म का चरित्र कुछ सीमा तक बिडम्बनाओं और विरोधाभासों से भी भरा है।
स्वयं को उत्पीड़न कर भी वह दूसरों विशेषकर आत्मीयजनों की पीड़ा दूर करने के लिए सारे नीति-नियमों का उलंघन कर जाते हैं। इसे क्या कहेंगे ? समय की आवश्यकता अथवा नियति की क्रीड़ा ?
भीष्म का चरित्र जटिल है। नियति के हाथों कठपुतली बने इस कर्मशील एवं सत्यव्रती तथा श्रेष्ठों के प्रति श्रद्धावनत एवं आश्रितों के प्रति ममता से आकण्ड-पूरित इस विश्व–नायक के चरित्र का मूलांकन एक विषम कार्य है जिसे निभाने का प्रयास मैंने किया है।
डॉ. भगवतीशरण मिश्र
मैं भीष्म बोल रहा हूँ
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मैं शान्तनु-सुत, सत्यव्रत, भीष्म आज आप से संवादरत हूँ। सुना था इस धरती
से महाप्रयाण के समय आजीवन का करा-धरा, कुकर्म-सुकर्म सबका लेखा-जोखा किसी
चलचित्र की तरह स्वयं अन्तर्चक्षुओं के समक्ष उभरने लगता है। अनचाहे।
अयाचित। अनाकांक्षित।
ऐसा क्यों ? यह जिज्ञासा मुझसे नहीं करें क्योंकि आज स्वयं मैं अयाचित का आखेट हूँ। जीवन-ग्रन्थ के पृष्ठों को आदि से अन्त तक परायण जितना भी कटु और मधु हो पर इस क्षण इन पृष्ठों को पलटने को अभिशप्त हैं सभी, इसकी प्रतीति स्वयं की अनुभूति से ही हो रही है। कभी ग्रन्थावलोकन में मेरी रुचि नहीं रही पर अपने ही जीवन ग्रन्थ-के पन्ने उलटना इतना कष्टप्रद होगा इसका अभिज्ञान मुझे कब था ? जीवन की इस गोधूलि, इस सान्ध्य बेला में कौन यह अखाद्य खाने को विवश करता है, कह लें इस रो-मन्थन को ही। कौन ? कौन ? कौन ? जो भी करता हो वह करुण तो नहीं कहा जा सकता। अति कठोर है वह। यह क्षण शान्तिपूर्वक भवसागर को इस छोर से उस छोर तक तिर जाने का है, अपने किए अनकिए को लेकर अशान्त, उद्वेलित और पश्चाताप-ग्रस्त होने का नहीं।
पर उस निष्ठुर ने यही नियति गढ़ी है मनुज की। छोड़ने के पूर्व इस धरती को, लिए जाओ पूर्ण लेखा-जोखा अपनी जागतिक गतिविधियों का कि उस पार जाकर यह अनुमान लगाने की आवश्यकता ही नहीं रहे कि किस कर्म का कुफल यह आया समक्ष, अथवा किस कर्म का सुफल दे गया मलय-पवन का एक सुखद संस्पर्श। सब कुछ देख लो वृहत् दर्पण में जो तुम्हारे आजीवन के आचार-विचार, कार्य-अकार्य, शोभन-अशोभन, प्रशंसनीय-अप्रशंसनीय, श्लाघ्य-अश्लाघ्य सबको प्रतिबिम्बित कर रहा है पूर्णतया स्पष्ट रेखाओं में। सत्य का उद्घाटन है यह। असत्य, कल्पित कुछ नहीं इसमें। अयाचित यह चाहे जितना हो।
इस सूत्रधार को मैं जानता हूँ, मनुज की इस अपरिहार्य नियति के नियामक का। इस अधूरे, अर्थहीन जीवन की अगर कोई एकमात्र उपलब्धि रही है तो उसी को समीप से जानने-सुनने और उसके अपरूप के दर्शन कर इन चर्मचक्षुओं को तृप्त करने की।
हाँ, ‘शुभेन आरम्भयेत्’ (शुभ से ही आरम्भ करें) उस उक्ति को हृदयगत कर उस शुभ घटना से आरम्भ करना ही उचित होगा अपनी जीवन-चर्या को जो भले ही असंख्य अशुभों, अपकृत्यों और सर्वोपरि विभिन्न विडम्बनाओं से आद्यान्त भरी हो। वह खुलेगी पर्त-दर-पर्त आप के समक्ष अपने सभी आयामों में, सभी सत्यों-असत्यों के साथ। इस क्रम में खुलेगी कइयों के चरित्र-व्यवहार भी, न्याय अन्याय भी, छल-छल भी। मैं विवश हूँ इस सबकी अभिव्यक्ति हेतु क्योंकि धरती से इस प्रयाण-काल में असत्य का सहारा नहीं ले सकता। सत्य उदघाटित होगा तो कितनी सद्यः शरीर-मुक्त आत्माएं मुझसे रुष्ट होंगी। पर अत्सय का सहारा सत्यव्रत (भीष्म) ने अपने जीवन में कभी नहीं लिया, और चाहे जितने आरोपों से उसे कोई विदृ कर दे अर्जुन के इन शरों की तरह शय्या पर मृत्यु-काल की प्रतीक्षा में लेटा मैं स्मृति-चर्वण कर रहा हूँ, पर भी असत्य कथन मेरी जिह्वा पर नहीं चढ़ा, भले ही साक्षात् धर्म के अंश से उत्पन्न धर्मराज युधिष्ठिर को भी असत्य अथवा अर्द्ध सत्य का सहारा लेना पड़ा था अपने ही शास्त्र-गुरु आचार्य द्रोण के प्राणों के विसर्जन में साहाय्य बनने हेतु। यह प्रसंग भी आने से नहीं रहेगा मेरी प्रयाण-गाथा में। प्रतीक्षा करें।
तो सर्वप्रथम अपने इस जीवन की एकमात्र सार्थकता को सार्वजनिक करते हैं। मैंने आरंभ में ही निवेदित किया, ‘उस सूत्रधार को मैं जानता हूं, मनुज की इस अपरिहार्य नियति के नियामक को।’ नहीं स्मरण हो तो पृष्ठ पलटकर देख लें, यह भी कि किस सन्दर्भ में और क्यों यह कथन किया है मैंने।
तो आयें उस घड़ी पर जब सार्थक हुआ था मेरा मनुज-तन धारण। महाभारत-युद्ध के लिए ! ‘धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र’ में दोनों तरफ की सेनाएँ आमने-सामने सन्नद्ध थीं। ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएँ कौरवों की। सात पांडवों की। कौरवों और पांडवों का समान रूप से पितामह होने के बावजूद मैं कौरवों का सेनापति बन, पांडव-सेना के संहार-हेतु मोर्चा सम्भाल चुका था। यह मैंने क्यों किया, यह पक्षपात, स्वयं के पारिवारिक जनों को ही अपने अमोघ शरों के आखेट का आयोजन ? इसे आप काल-क्रम से जानेंगे। अनेक विडम्बनाओं, विचित्रताओं, विरोधाभासों से पूर्ण होते जीवन के इस कृत्य के कारण से आप अनभिज्ञ नहीं रहेंगे।
हाँ, कालांतर शरों से भरे असंख्य तूणीरों से सजे अपने विशाल रथ में मुकुट एवं-कुंडल मंडित स्वेत, परिधान में ही अवेष्टित, मैं (तथाकथित) कुरु-श्रेष्ठ, आर्यावर्त का अपराजेय योद्धा, नर-पुंगव, युद्धारम्भ की प्रतीक्षा में सचेत खड़ा था।
अभी-अभी दुर्योधन के मनोबल की वृद्धि के लिए मैंने सिंह-गर्जना के साथ शंख-निनाद किया था। मेरे उस कृत्य का अनुकरण करते हुए, कौरव और पांडव दोनों पक्षों ने शंख तथा रण-वाद्यों की ध्वनि से आ-गगन पृथ्वी को तुमुल स्वरों से भर दिया था।
श्रीकृष्ण के सारथ्य में श्वेत अश्वों से जुते रथ में, मुझसे कुछ ही दूर विपक्ष का नेतृत्व सम्हाले अर्जुन ने भी देवदत्त नामक शंख बजाया था और जिसके दर्शन से मैं कृत-कृत्य हो रहा था, अर्जुन के साथ उस सारथि वासुदेव श्रीकृष्ण ने भी अपना पाँचजन्य नामक शंख फूँका था। यद्यपि उन्होंने युद्ध में भाग नहीं लेने का प्रण लिया था पर पाँचजन्य को स्वर दे उन्होंने भी जैसे युद्धारम्भ को घोषणा कर दी थी। उन्होंने शस्त्र नहीं छूने का व्रत लिया था, शंख-स्पर्श नहीं करने का नहीं।
भेरी, नगाड़ा ढोल, मृदंग एवं तुरही आदि वाद्य चतुर्दिक बज उठे, नहीं, शंख मात्र मैंने या अर्जुन अथवा श्रीकृष्ण ने ही नहीं बजाए थे। दोनों ओर के प्रमुख योद्धाओं ने भी शंखनाद किया था। काशीराज सात्यकि ने किया था, अर्जुन के चारों भाइयों ने किया था, अभिमन्यु ने भी किया था और पूरी शक्ति लगाकर शंख में अपने फेफड़ों की सारी वायु उड़ेलकर उस शिखंडी ने भी किया था जो मेरी इस शर-शय्या का प्रमुख कारण बना है।
शिखंडी के उत्साहातिरेक पर मुझे उस समय विस्मय अवश्य हुआ था पर युद्ध में शरवृद्धि हो धरती पर अपने पतन का काल ही मुझे युद्धारम्भ के पूर्व उसके हर्ष और आनन्द का अभिज्ञान हो सका था।
हाँ, शिखंडी नहीं होता तो मुझे कंटकों की शय्या से भी कष्टकारी यह रस-शय्या नहीं मिलती। पर इस शुभारम्भ की चिन्ता की घड़ी शिखंडी की अशुभ गाथा क्यों टपक पड़ी ? मुझे लौटने दे उस घटना पर जिसके चित्रण-हेतु मैं कब से आकुल हूँ।
शंखनाद और युद्ध-वाद्यों की ध्वनि के पश्चात भी युद्ध आरम्भ नहीं हुआ। सेनाध्यक्ष के नाते, अगर उस ओर से युद्ध आरम्भ नहीं हुआ, तो मुझे इस ओर से शर-संधान कर देना था—युद्धारम्भ। पर मेरी अपनी विवशता थी। लोगों की दृष्टि में महाप्रतापी, आर्यावर्त का अतुलनीय योद्धा मैं युद्ध के सर्वमान्य नियम का उल्लंघन नहीं कर सकता था।
निःशस्त्र पर प्रहार नहीं करना, युद्ध का यह घोषित और अघोषित दोनों आचार है। मेरे समक्ष रथारूढ़ पार्थ ने अपने धनुष गांडीव को त्याग दिया था तथा अपने सखा एवं सारथि वासुदेव से यह कहकर ‘न योत्सस्य’ (युद्ध नहीं करूँगा) वह अपने रथ के पार्शव भाग में जा बैठा था। अब ऐसे में मैं उसके सिरोभाग या ग्रीवा या वक्षस्थल को लक्ष्य बनाकर अपना कोई कुशाग्र शर छोड़ूं तो इन वृद्ध हाथों से भी छूटा वह शर उसको युद्धारम्भ के पूर्व ही यम-द्वार दिखला देता। नहीं मैं ऐसा नहीं कर सकता था, यद्यपि इस नियम का उल्लंघन इस तथाकथित धर्म-युद्ध में कई बार हुआ, अपितु प्रतिपक्ष द्वारा इस नियम की निष्ठुर अवहेलना के फलस्वरूप ही मुझे शर-शय्या उपलब्ध हुई। जो मैंने नहीं किया, वह कई के साथ, अन्ततः मेरे साथ भी निर्दयता-पूर्ण रूप में किया गया। आज जीवन की इस अवसान-बेला में सोचता हूँ, मुझे अन्याय का सहारा ले धराशायी महाभारत-विजय को सुनिश्चित किया गया पांडवों द्वारा यदि मैं युद्ध के आरंभ में ही इसी अनीति का सहारा ले पांडव-सेना की विजय की एक मात्र आशा, अर्जुन का जीवन-दीप बुझा देता तो विजय-श्री पांडवों का वरण नहीं कर कौरवों के चरण चूमती। पर अगर मुझे भविष्य में अपने साथ धोखाधड़ी एवं अन्याय-अनीति का पूर्वानुमान भी होता तब भी क्या मैं अर्जुन के साथ वही व्यवहार करता जो मेरे साथ हुआ ? कदापि नहीं।
प्राणों को, प्रण से अधिक प्रिय नहीं होना चाहिए। मैं सत्यव्रत, शान्तनु-सुत भीष्म सत्य के अपने प्रण को नहीं तोड़ सकता था। मैं निःशस्त्र प्रतिपक्षी पर प्रहार नहीं कर सकता था।
ऐसे भी अर्जुन के रथ पर जो घट रहा था उसने मुझे ऐसा अभिभूत कर रखा था कि मेरी सारी इन्द्रियाँ कर्णवत् और नेत्रवत् हो गई थीं। कुछ और सोचने-समझने का अवसर ही नहीं था, शर-सन्धान का प्रश्न कहाँ उठता था ?
ऐसा क्यों ? यह जिज्ञासा मुझसे नहीं करें क्योंकि आज स्वयं मैं अयाचित का आखेट हूँ। जीवन-ग्रन्थ के पृष्ठों को आदि से अन्त तक परायण जितना भी कटु और मधु हो पर इस क्षण इन पृष्ठों को पलटने को अभिशप्त हैं सभी, इसकी प्रतीति स्वयं की अनुभूति से ही हो रही है। कभी ग्रन्थावलोकन में मेरी रुचि नहीं रही पर अपने ही जीवन ग्रन्थ-के पन्ने उलटना इतना कष्टप्रद होगा इसका अभिज्ञान मुझे कब था ? जीवन की इस गोधूलि, इस सान्ध्य बेला में कौन यह अखाद्य खाने को विवश करता है, कह लें इस रो-मन्थन को ही। कौन ? कौन ? कौन ? जो भी करता हो वह करुण तो नहीं कहा जा सकता। अति कठोर है वह। यह क्षण शान्तिपूर्वक भवसागर को इस छोर से उस छोर तक तिर जाने का है, अपने किए अनकिए को लेकर अशान्त, उद्वेलित और पश्चाताप-ग्रस्त होने का नहीं।
पर उस निष्ठुर ने यही नियति गढ़ी है मनुज की। छोड़ने के पूर्व इस धरती को, लिए जाओ पूर्ण लेखा-जोखा अपनी जागतिक गतिविधियों का कि उस पार जाकर यह अनुमान लगाने की आवश्यकता ही नहीं रहे कि किस कर्म का कुफल यह आया समक्ष, अथवा किस कर्म का सुफल दे गया मलय-पवन का एक सुखद संस्पर्श। सब कुछ देख लो वृहत् दर्पण में जो तुम्हारे आजीवन के आचार-विचार, कार्य-अकार्य, शोभन-अशोभन, प्रशंसनीय-अप्रशंसनीय, श्लाघ्य-अश्लाघ्य सबको प्रतिबिम्बित कर रहा है पूर्णतया स्पष्ट रेखाओं में। सत्य का उद्घाटन है यह। असत्य, कल्पित कुछ नहीं इसमें। अयाचित यह चाहे जितना हो।
इस सूत्रधार को मैं जानता हूँ, मनुज की इस अपरिहार्य नियति के नियामक का। इस अधूरे, अर्थहीन जीवन की अगर कोई एकमात्र उपलब्धि रही है तो उसी को समीप से जानने-सुनने और उसके अपरूप के दर्शन कर इन चर्मचक्षुओं को तृप्त करने की।
हाँ, ‘शुभेन आरम्भयेत्’ (शुभ से ही आरम्भ करें) उस उक्ति को हृदयगत कर उस शुभ घटना से आरम्भ करना ही उचित होगा अपनी जीवन-चर्या को जो भले ही असंख्य अशुभों, अपकृत्यों और सर्वोपरि विभिन्न विडम्बनाओं से आद्यान्त भरी हो। वह खुलेगी पर्त-दर-पर्त आप के समक्ष अपने सभी आयामों में, सभी सत्यों-असत्यों के साथ। इस क्रम में खुलेगी कइयों के चरित्र-व्यवहार भी, न्याय अन्याय भी, छल-छल भी। मैं विवश हूँ इस सबकी अभिव्यक्ति हेतु क्योंकि धरती से इस प्रयाण-काल में असत्य का सहारा नहीं ले सकता। सत्य उदघाटित होगा तो कितनी सद्यः शरीर-मुक्त आत्माएं मुझसे रुष्ट होंगी। पर अत्सय का सहारा सत्यव्रत (भीष्म) ने अपने जीवन में कभी नहीं लिया, और चाहे जितने आरोपों से उसे कोई विदृ कर दे अर्जुन के इन शरों की तरह शय्या पर मृत्यु-काल की प्रतीक्षा में लेटा मैं स्मृति-चर्वण कर रहा हूँ, पर भी असत्य कथन मेरी जिह्वा पर नहीं चढ़ा, भले ही साक्षात् धर्म के अंश से उत्पन्न धर्मराज युधिष्ठिर को भी असत्य अथवा अर्द्ध सत्य का सहारा लेना पड़ा था अपने ही शास्त्र-गुरु आचार्य द्रोण के प्राणों के विसर्जन में साहाय्य बनने हेतु। यह प्रसंग भी आने से नहीं रहेगा मेरी प्रयाण-गाथा में। प्रतीक्षा करें।
तो सर्वप्रथम अपने इस जीवन की एकमात्र सार्थकता को सार्वजनिक करते हैं। मैंने आरंभ में ही निवेदित किया, ‘उस सूत्रधार को मैं जानता हूं, मनुज की इस अपरिहार्य नियति के नियामक को।’ नहीं स्मरण हो तो पृष्ठ पलटकर देख लें, यह भी कि किस सन्दर्भ में और क्यों यह कथन किया है मैंने।
तो आयें उस घड़ी पर जब सार्थक हुआ था मेरा मनुज-तन धारण। महाभारत-युद्ध के लिए ! ‘धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र’ में दोनों तरफ की सेनाएँ आमने-सामने सन्नद्ध थीं। ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएँ कौरवों की। सात पांडवों की। कौरवों और पांडवों का समान रूप से पितामह होने के बावजूद मैं कौरवों का सेनापति बन, पांडव-सेना के संहार-हेतु मोर्चा सम्भाल चुका था। यह मैंने क्यों किया, यह पक्षपात, स्वयं के पारिवारिक जनों को ही अपने अमोघ शरों के आखेट का आयोजन ? इसे आप काल-क्रम से जानेंगे। अनेक विडम्बनाओं, विचित्रताओं, विरोधाभासों से पूर्ण होते जीवन के इस कृत्य के कारण से आप अनभिज्ञ नहीं रहेंगे।
हाँ, कालांतर शरों से भरे असंख्य तूणीरों से सजे अपने विशाल रथ में मुकुट एवं-कुंडल मंडित स्वेत, परिधान में ही अवेष्टित, मैं (तथाकथित) कुरु-श्रेष्ठ, आर्यावर्त का अपराजेय योद्धा, नर-पुंगव, युद्धारम्भ की प्रतीक्षा में सचेत खड़ा था।
अभी-अभी दुर्योधन के मनोबल की वृद्धि के लिए मैंने सिंह-गर्जना के साथ शंख-निनाद किया था। मेरे उस कृत्य का अनुकरण करते हुए, कौरव और पांडव दोनों पक्षों ने शंख तथा रण-वाद्यों की ध्वनि से आ-गगन पृथ्वी को तुमुल स्वरों से भर दिया था।
श्रीकृष्ण के सारथ्य में श्वेत अश्वों से जुते रथ में, मुझसे कुछ ही दूर विपक्ष का नेतृत्व सम्हाले अर्जुन ने भी देवदत्त नामक शंख बजाया था और जिसके दर्शन से मैं कृत-कृत्य हो रहा था, अर्जुन के साथ उस सारथि वासुदेव श्रीकृष्ण ने भी अपना पाँचजन्य नामक शंख फूँका था। यद्यपि उन्होंने युद्ध में भाग नहीं लेने का प्रण लिया था पर पाँचजन्य को स्वर दे उन्होंने भी जैसे युद्धारम्भ को घोषणा कर दी थी। उन्होंने शस्त्र नहीं छूने का व्रत लिया था, शंख-स्पर्श नहीं करने का नहीं।
भेरी, नगाड़ा ढोल, मृदंग एवं तुरही आदि वाद्य चतुर्दिक बज उठे, नहीं, शंख मात्र मैंने या अर्जुन अथवा श्रीकृष्ण ने ही नहीं बजाए थे। दोनों ओर के प्रमुख योद्धाओं ने भी शंखनाद किया था। काशीराज सात्यकि ने किया था, अर्जुन के चारों भाइयों ने किया था, अभिमन्यु ने भी किया था और पूरी शक्ति लगाकर शंख में अपने फेफड़ों की सारी वायु उड़ेलकर उस शिखंडी ने भी किया था जो मेरी इस शर-शय्या का प्रमुख कारण बना है।
शिखंडी के उत्साहातिरेक पर मुझे उस समय विस्मय अवश्य हुआ था पर युद्ध में शरवृद्धि हो धरती पर अपने पतन का काल ही मुझे युद्धारम्भ के पूर्व उसके हर्ष और आनन्द का अभिज्ञान हो सका था।
हाँ, शिखंडी नहीं होता तो मुझे कंटकों की शय्या से भी कष्टकारी यह रस-शय्या नहीं मिलती। पर इस शुभारम्भ की चिन्ता की घड़ी शिखंडी की अशुभ गाथा क्यों टपक पड़ी ? मुझे लौटने दे उस घटना पर जिसके चित्रण-हेतु मैं कब से आकुल हूँ।
शंखनाद और युद्ध-वाद्यों की ध्वनि के पश्चात भी युद्ध आरम्भ नहीं हुआ। सेनाध्यक्ष के नाते, अगर उस ओर से युद्ध आरम्भ नहीं हुआ, तो मुझे इस ओर से शर-संधान कर देना था—युद्धारम्भ। पर मेरी अपनी विवशता थी। लोगों की दृष्टि में महाप्रतापी, आर्यावर्त का अतुलनीय योद्धा मैं युद्ध के सर्वमान्य नियम का उल्लंघन नहीं कर सकता था।
निःशस्त्र पर प्रहार नहीं करना, युद्ध का यह घोषित और अघोषित दोनों आचार है। मेरे समक्ष रथारूढ़ पार्थ ने अपने धनुष गांडीव को त्याग दिया था तथा अपने सखा एवं सारथि वासुदेव से यह कहकर ‘न योत्सस्य’ (युद्ध नहीं करूँगा) वह अपने रथ के पार्शव भाग में जा बैठा था। अब ऐसे में मैं उसके सिरोभाग या ग्रीवा या वक्षस्थल को लक्ष्य बनाकर अपना कोई कुशाग्र शर छोड़ूं तो इन वृद्ध हाथों से भी छूटा वह शर उसको युद्धारम्भ के पूर्व ही यम-द्वार दिखला देता। नहीं मैं ऐसा नहीं कर सकता था, यद्यपि इस नियम का उल्लंघन इस तथाकथित धर्म-युद्ध में कई बार हुआ, अपितु प्रतिपक्ष द्वारा इस नियम की निष्ठुर अवहेलना के फलस्वरूप ही मुझे शर-शय्या उपलब्ध हुई। जो मैंने नहीं किया, वह कई के साथ, अन्ततः मेरे साथ भी निर्दयता-पूर्ण रूप में किया गया। आज जीवन की इस अवसान-बेला में सोचता हूँ, मुझे अन्याय का सहारा ले धराशायी महाभारत-विजय को सुनिश्चित किया गया पांडवों द्वारा यदि मैं युद्ध के आरंभ में ही इसी अनीति का सहारा ले पांडव-सेना की विजय की एक मात्र आशा, अर्जुन का जीवन-दीप बुझा देता तो विजय-श्री पांडवों का वरण नहीं कर कौरवों के चरण चूमती। पर अगर मुझे भविष्य में अपने साथ धोखाधड़ी एवं अन्याय-अनीति का पूर्वानुमान भी होता तब भी क्या मैं अर्जुन के साथ वही व्यवहार करता जो मेरे साथ हुआ ? कदापि नहीं।
प्राणों को, प्रण से अधिक प्रिय नहीं होना चाहिए। मैं सत्यव्रत, शान्तनु-सुत भीष्म सत्य के अपने प्रण को नहीं तोड़ सकता था। मैं निःशस्त्र प्रतिपक्षी पर प्रहार नहीं कर सकता था।
ऐसे भी अर्जुन के रथ पर जो घट रहा था उसने मुझे ऐसा अभिभूत कर रखा था कि मेरी सारी इन्द्रियाँ कर्णवत् और नेत्रवत् हो गई थीं। कुछ और सोचने-समझने का अवसर ही नहीं था, शर-सन्धान का प्रश्न कहाँ उठता था ?
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